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तुम ऐसी क्यों हो?

इतनी हिम्मत तुम लाती कहाँ से हो
इतना तुम क्यों सहती हो
बार बार गिर कर
फिर कैसे खड़ी हो जाती हो
क्या तुम्हारा मन नहीं सहमता
क्या तुम्हें डर नहीं लगता
फिर से गिर जाने का
फिर से ठोकर खाने का
आखिर तुम ऐसी क्यों हो
कभी एकदम शांत
कभी एकदम तूफान
पल में रो देती हो
पल में हसं देती हो
बड़ी बड़ी चुनौती में भी हार नहीं मानती
और एक छोटी-सी बात पर चीड़ जाती हो
हमेशा कहाँ खोई रहती हो
क्या सोचती हो, क्या कोई खुहाब है
किसी से कुछ बोलती भी नहीं हो
कितना कुछ सबसे छुपा कर रखती हो
ऐसा क्यों है, कहती क्यों नहीं हो
क्या झूठी सहानुभूति से डरती हो
या और सवालो से
सबको माफ कैसे कर देती हो
और फिर उनकी मदद भी
तुम कभी मुझे समझ मे क्यों नहीं आती
हर चीज़ को देखने का अलग नजरिया
हमेशा निराशा में भी कोई आशा की किरण
कैसे खोज लेती हो
जितना तुम्हें जानो
तुम पहेली की तरह और उलझ जाती हो
और हमेशा चहरे पर वो मुश्कान कैसे रहती है
क्या सच में खुश हो
या सिर्फ ये एक छल है
इतना जान कर भी तुम्हें
हम नहीं जानते
और शायद जान भी ना पाए ।
© ईरा सिंह

Thanks for reading!!!

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उठ देख जरा …

माना रात अंधेरी है सुबह होने में थोड़ी देरी है 
पर तू ऐसे सो नहीं सकता, तुझे खुद को जगाना है
पर तू ऐसे रुक नहीं सकता, थक नहीं सकता
क्यों रोता तू क़िस्मत पर
उसके आँचल में क्यों सिसकियाँ भरता
ये तेरी ही दास है,तू क्यों निराश है
जो नहीं मिला,जो बीत गया
जो आने वाला है जो चला गया है
उसका गम क्या करता है
तू क्यों खोता ऐसे आस है, सोच जरा
तेरी इच्छाशक्ति बड़ी या भाग्य
एक ठोकर से ही तू डर नहीं सकता है
ऐसे छुप कर,सहम कर बैठ नहीं सकता
अभी तो पूरी जंग है बाक़ी,डर नही सकता
तुझे खुद को हराना है, खुद को और तपाना है
दीये की लॉ है तू,रोशन करना एक जमाना है
खुद की तलाश कर, खुद को पहचान जरा
उस ज़िद, उस आशा का दामन थाम जरा
सोना नहीं रातो को तुझे,तुझे ख़ुद को जागना है
खेलता तू अंगारों से, आग से क्यों घबराना है
चलता अकेला अंजान राहो पर, क्या भय है
सागर से भी गहरा, तेरा आत्मविश्वास है
माना रात अंधेरी है सुबह होने में देरी है
तू सो नहीं सकता, तुझे खुद को जगाना है
हारा कब तू किसी से, हारा तू खुद से
अब और नहीं, खुद को खोज ले फिर से।
©ईरा सिंह

The poem I wrote above has been inspired by the following poem which I wrote a few years back, I hope you liked it.

Thanks for reading!!

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शोर

कैसे चुप करवाऊ उस शोर को
जो सुनाई देता है पर दिखता नहीं
बाहर तो सन्नटा है पसरा

तो महाभारत कहाँ है
लड़ रही हूँ,अक्सर लड़ती हूँ
पर किससे और कब तक
डर है कहीं इस बार हार ना जाऊं
पर मैं जीती भी कब थी
हमेशा कुछ ना कुछ कमी थी
क्या है आरम्भ और क्या है अंत
रोना है पर रो नहीं सकती
हँसना है पर कैसे,क्यों,और कब
कोई कारण भी नहीं
कब जीते कब हारे
किसकी तलाश है और क्या आस है
इन उलझनों का क्या करूँ
उन सवालों का क्या करूँ
इस पहेली का हल क्या है
किसको खोजूं और कहाँ खोजूं
पर खोजना ही क्यों है
क्या खोया था जो पाना है
क्या पाया था जो खो गया
दौड़ती हूँ, पर चलती क्यों नहीं
चलती हूँ, पर थमती क्यों नहीं
थम गई तो क्या होगा
थक गई तो क्या होगा
क्या मैं वक़्त में हूँ या वक़्त मुझमें है
जो कभी रुकता नहीं
ज़िन्दगी उल्टी है या मैं सीधी हूँ
पर धारा तो विपरीत बहती नहीं
शोर का पता चले
तो मुझे भी बता देना
शायद इन प्रश्नों का उत्तर
तब खोज पाऊं ।
© ईरा सिंह

Thanks for reading !!!!!

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बचपन

कहीं गुम हो गई वो मासुमियत
खो गई कहीं वो प्यारी मुसकान
इस असंतोषी भागमभाग भारी ज़िन्दगी में
यादें उन बीते दिनों की
यादें उन गुजरे पलों की
याद आती है फिर
बचपन की वो हँसी फुलवारी
थोड़ा कच्चापन, थोड़ी नादानी
वो हर समय की खेल-कूद
वो हर पल शैतानी
नहीं जानते क्या सही या गलत
नहीं जानते छल-कपट
वो तोतली आवाज़ में बातें
वो हर पल दिमाग में चलती नई खुराफाती
वो हर दिन की नई जिज्ञासा
नए नए प्रश्नों के साथ हाजिर
वो छोटी छोटी लड़ाई दो पल की
फिर मनाना दो पल का
पर ये विडंबना आज की
कि छिन गया है बचपन बच्चो का
अब हाथ में खिलौने या किताबें नहीं
औजार है
नन्हे नन्हें बच्चें पालक है परिवार के
बच्चे काम पर जा रहे है
खो रहा है बचपन
खो रहा है बचपन ।
© ईरा सिंह

ये कविता मैंने कॉलेज में कविता लेखन प्रतियोगिता के लिए लिखी थी। आपको कैसी लगी ?

Thank you so much for reading ……

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एक फूल …..

एक फूल जब है खिलता 
कितना शीतल इतना कोमल
सबको अपनी मनमोहक सुगंध से
प्रसन्नचित्त वो करता
हँसता खेलता मनमर्जियाँ करता
पौधा गर्व से सिर उठाता
ये फूल है मेरा, अभिमान वो करता
पूरा बगीचा खिल उठाता
नाचता-गाता, संगीत की महफिल होती
फिर अचानक एक दिन
सब शांत, मातम-सा छा जाता
माली फूल ले गया
सब बस बेबसी में देखते रह गए
पहले तो उस फूल को खूब सजाया गया
महंगें दाम में बेचा गया
पर जब उसकी सुगंध ख़त्म हो गई
उसे फेक दिया
और वो कोमल पुष्प
कुचल कुचल कर मर गया ।
© ईरा सिंह

आपको मेरी ये कविता कैसी लगी मुझे कमेंट में जरूर बताना । और क्या आपको समझ में आया की यहां मैंने फूल किसको कहा है ? इसको पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

Thank you!!!

To read my more poems in Hindi Click here

Note: if you want to translate it, Google translator is available on my website page 😊

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माफी ……

मानव जीवन का उद्देश्य था 
मानवता का विस्तार
आज वही मानव बन बैठा है
अपने जीवन में खुद अभिशाप
पाप हो या पुण्य
सही हो या गलत
क्या करना है सिर्फ उसे
अपना ही उद्धार
पर किस कीमत पर
थोड़ा तो गौर फर्मा
मिलता है मनुष्य जीवन
कई जन्मों में सिर्फ एक बार
क्या ऐसे ही मिटा दे इसे
कर रोज़ युद्ध विहार
मानव जब मानव का ही विरोधी है
तो वह जन-जीवन से क्या प्रेम करेगा
वह अपने अहम में
सिर्फ सृष्टि का ही अंत करेगा
जिसको सर्वश्रेष्ठ संरचना कहा गया ईश्वर की
अब कर रहा है सबका वो ही संहार
क्या मनुष्यता ख़त्म हो गयी
क्या सिद्ध हो गयी मानव की श्रेष्ठता
कर जन धन मन पर वार
समय है रुक जा
सत्य मार्ग पर फिर पग बढ़ा
आपने विनाश को रोक जरा
थोड़ा थम जा
थोड़ा तो फिर सोच
अपने अभिमान में
जो है उसको तो मत गावा
धरती का ह्रदय विशाल है
तू भी उसकी ही संतान है
शायद माफी मिल जाए ।
© ईरा सिंह

Thank you for reading it!!!!

Note: This poem is written in the Hindi language, you can translate and read it by using the translator option available on my website page😊

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चाह

“मैं बंद पिंजरे में बैठा
हमेशा यही सोचता
क्या जीवन है मेरा
इतनी जंजीरो से बंधा
कैसी होगी वो बाहर की दुनिया
दिनभर बस यही सोचता
मेरे सपने कब होंगे पूरे
कब मैं बाहर आ पाऊंगा
कुछ डर जाता,सहम जाता
जब कोई रास्ता नजर ना आता
पर फिर भी उड़ाने की चाह मैं रखता । “
© ईरा सिंह

मैंने यह कविता बहुत पहले मन में आने वाले अनेकों सवालो के संधर्ब में लिखी थी । कैसे हम आपने सपनो को पूरा करने के लिए हमेशा मेहनत करते है कभी कभी कुछ सपने पूरे होते है कुछ नही पर हमे कभी भी उम्मीद नही छोड़नी चाहिए

मैनें इस कविता को मेरे लेख क्या कोरोना भगवान का प्रकोप है या मानव उत्तपन आपदा ? में भी प्रयोग किया था परंतु वहां उसका संधर्ब बिल्कुल अलग था ।

मुझे लगा कि ये कविता एक नई पोस्ट में शेयर करनी चाहिए। आशा करती हूं आपको पसंद आई होगी ।

Thank you for reading it !!!!!!!

Stay safe , Stay healthy!!!!!

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ज़िन्दगी इतनी भी बुरी नहीं है

कभी सोचा है तुमने

ज़िंदगी इतनी भी बुरी नहीं है

देखोगे बैठ कर थोड़ा

खुशियाँ अनेकों अभी -भी मिल जाऐगी

हमेशा विषाद जरूरी नही

क्या परिवार का साथ

वो बैठ कर घंटों बात

एक दूसरे को जानने का एक नया अंदाज़

फिर से वो तुम्हरा छत्तो पर आ जाना

वो फिर पतंग उड़ाना

कभी खुद से तो कभी वो प्रकृति के साथ गुफ्तगू

फिर से पुराने शौक का नया आगाज़

और आजकल सब बन गए है हलवाई

क्यों इन छोटी – छोटी खुशियों से

तुम्हारा मन नही हर्षाता

हर बात पर रोना जरूरी नही

खाने को दो वक्त की रोटी है

सिर पर छत्त है

वेतन कम सही

पर मिल तो रहा है

उनसे पूछो जिनके पास इतना भी नहीं है

क्या कुछ ना होने से कुछ होना अच्छा नहीं है

रोने के हजारों बहाने मिल जायेंगे

खुश होने का एक ही काफी है

परिशनियाँ है माना

पर क्या दुखी होने से

वो हल हो जाएगी

तो क्यों ना थोड़ा मुस्कुराया जाए
अब तुम हँसते हुए जियो या रोते हुए

ये तुम्हारे ऊपर है

पर एक बार बैठ कर सोचना जरूर

ज़िन्दगी इतनी भी बुरी नही है ।

©ईरा सिंह

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पछतावा

सूरज की किरणें ड़ूब गई

अंधेरा फिर छाया

साथ में काली अंधेरी रात भी लाया

मन सहम गया , कुछ घबराया

हिम्मत टूटने लगी

आत्मविश्वास भी डगमगाया

जब कुछ नज़र ना आया

यह वो रात थी जब चंद भी ना जाने कहाँ छुप गया

रोशनी का कोई साधन नज़र ना आया o

रास्ते खोने लगे , मार्ग भी हर्षाया

मंज़िलें ओर दूर होने लगी

तब समय भी मुस्कुराया

अपनी बेबसी में

मेरे मन में भी आया

हार हो चुकी अब

परिश्रम व्यर्थ बहाया

जब गिरना ही लिखा है किस्मत में

फिर क्यों तू ऊपर आया

हमेशा वो नहीं मिलता जो तुम चाहते हो

पर क्या कौशिश भी नहीं करोगे

बिना परीक्षा दिए

तुम पहले ही परिणाम कैसे जान जायोगे

क्या बिना जाले दीपक रोशनी दे सकता है

क्या बिना साहस के युद्ध जीता जा सकता है

हार मान लेना ही सबसे बड़ी हार है

और फिर पछताना जीवन भर का

क्यों काश का ही रह जाऐगा बस फिर ये फसाना ।

© ईरा सिंह

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निश्चय

इन हवाओं ,इन फ़िज़ाओं का रुख

इन में बहती एक आशा

इन आशाओं और निराशाओं की एक

अलग ही परिभाषा

एक अलग ही रंजिश

एक अलग ही एहसास

ये कुछ कह रही है ,कुछ तो बताना चाहती है

इन के साथ बह जाओ

कुछ अपना कुछ हमारा भला कर जाओ

मंज़िल मिलती नहीं मात्र सोच लेने से

हर संभव प्रयास

हर इशारे की समझ जरूरी

भाग्य में जो लिखा है वही होगा

ये जरूरी नहीं

क्योंकि कुछ भी हमारी सोच के परे नहीं।

©ईरा सिंह