किसने सोचा था एक दिन ऐसा भी आऐगा,थम सी जाऐगी कुछ ज़िंदगी
है सब अपने घर में ही बन्दी,सड़के हो गई है सुनी
रेल,हवाई जहाज सब रुक गए,मोटर-गाड़ियों का शोर हो गया कही गुम
प्रदुषण भी कही छुप गया,बाजारों की भी रौनक ख़त्म
बंद पड़े है सब दफ्तर, मॉल और कारखाने, स्कूल और कॉलेज में भी पसरी शांति
चारो और है सन्नाटा ,रेस्टोरेंट और सिनेमाघरों में भी पड़ा है ताला
और अस्पताल में है भीड़ भारी
डॉक्टर, स्वस्थ्यकर्मी , सफ़ाई कर्मचारी , पुलिस ही बने है संगी
फ़र्ज़ अपना निभाने के लिए , अपने आप को भी वो भूल गए
फिर भी प्रहार वो खा रहे
डरा सहमा बैठा हैं मनुष्य ,एक दूसरे से मिलने से भी अब है वो घबराहता
ना दिन का है पता और ना है रात को चैन
बार बार हाथ धुलने को आतुर , साफ सफ़ाई में अब हो गया वो चतुर
इतने मुखौटे पहने मानव को मास्क एक ही चाहिए
सैनिटाइजर की एक शीशी , अमृत समान मान रहा
समान एकत्रित करने की होड़ से , सब अचंभित है
खुद को पहले बचा ले , मानवता से क्या मतलब है
हमेशा छुट्टी पाने की वो चाह भी अब ना मन मे आती
उसको दफ्तर और स्कूल की याद बहुत सताती
पर वो चिड़ियों की मधुर -मधुर चहचाना ,वो समुंदर की लहरों का संगीत
वो बारिश की बूंदो का राग,फिर मन बह ला रहा
खुले नीले आसमान में इंद्र धनुष भी अपनी खुशी जता रहा
ठंडी ठंडी पवन का झोंका एहसास अलग करवा रहा
हरे -भरे झूमते पेड़ -पौधों से,मन – मोहक फूलो की खुशबू से
पर्यावरण फिर इतरा रहा ,उत्साह नया जगा रहा
शायद जो भूल गया था इंसान , याद उसको वही दिलवा रहा
क्या पता अब मनुष्य समझ पाए
वो प्रकृति से है , प्रकृति उससे नही
प्रकृति तो सबकी जननी है
सिर्फ तेरा ही उस पर हक नहीं ।
© ईरा सिंह