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उठ देख जरा …

माना रात अंधेरी है सुबह होने में थोड़ी देरी है 
पर तू ऐसे सो नहीं सकता, तुझे खुद को जगाना है
पर तू ऐसे रुक नहीं सकता, थक नहीं सकता
क्यों रोता तू क़िस्मत पर
उसके आँचल में क्यों सिसकियाँ भरता
ये तेरी ही दास है,तू क्यों निराश है
जो नहीं मिला,जो बीत गया
जो आने वाला है जो चला गया है
उसका गम क्या करता है
तू क्यों खोता ऐसे आस है, सोच जरा
तेरी इच्छाशक्ति बड़ी या भाग्य
एक ठोकर से ही तू डर नहीं सकता है
ऐसे छुप कर,सहम कर बैठ नहीं सकता
अभी तो पूरी जंग है बाक़ी,डर नही सकता
तुझे खुद को हराना है, खुद को और तपाना है
दीये की लॉ है तू,रोशन करना एक जमाना है
खुद की तलाश कर, खुद को पहचान जरा
उस ज़िद, उस आशा का दामन थाम जरा
सोना नहीं रातो को तुझे,तुझे ख़ुद को जागना है
खेलता तू अंगारों से, आग से क्यों घबराना है
चलता अकेला अंजान राहो पर, क्या भय है
सागर से भी गहरा, तेरा आत्मविश्वास है
माना रात अंधेरी है सुबह होने में देरी है
तू सो नहीं सकता, तुझे खुद को जगाना है
हारा कब तू किसी से, हारा तू खुद से
अब और नहीं, खुद को खोज ले फिर से।
©ईरा सिंह

The poem I wrote above has been inspired by the following poem which I wrote a few years back, I hope you liked it.

Thanks for reading!!

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Author:

I am Doctor by profession who loves to write poetry and articles , a mental health enthusiastic , nature lover and very much interested in history and mythology .

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